कहानी बड़ी सुहानी

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(1) कहानी

         मुसीबत का सामना

एक गाँव में एक बढ़ई रहता था। वह शरीर और दिमाग से बहुत मजबूत था।

एक दिन उसे पास के गाँव के एक अमीर आदमी ने फर्नीचर बनबाने के लिए अपने घर पर बुलाया।

जब वहाँ का काम खत्म हुआ तो लौटते वक्त शाम हो गई तो उसने काम के मिले पैसों की एक पोटली बगल मे दबा ली और ठंड से बचने के लिए कंबल ओढ़ लिया। 
वह चुपचाप सुनसान रास्ते से घर की और रवाना हुआ। कुछ दूर जाने के बाद अचानक उसे एक लुटेरे ने रोक लिया।

डाकू शरीर से तो बढ़ई से कमजोर ही था पर उसकी कमजोरी को उसकी बंदूक ने ढक रखा था। 

अब बढ़ई ने उसे सामने देखा तो लुटेरा बोला, 'जो कुछ भी तुम्हारे पास है सभी मुझे दे दो नहीं तो मैं तुम्हें गोली मार दूँगा।' 

यह सुनकर बढ़ई ने पोटली उस लुटेरे को थमा दी और बोला, ' ठीक है यह रुपये तुम रख लो मगर मैं घर पहुँच कर अपनी बीवी को क्या कहुंगा। वो तो यही समझेगी कि मैने पैसे जुए में उड़ा दिए होंगे।

तुम एक काम करो, अपने बंदूक की गोली से मेरी टोपी मे एक छेद कर दो ताकि मेरी बीवी को लूट का यकीन हो जाए।' 

लुटेरे ने बड़ी शान से बंदूक से गोली चलाकर टोपी में छेद कर दिया। अब लुटेरा जाने लगा तो बढ़ई बोला, 

'एक काम और कर दो, जिससे बीवी को यकीन हो जाए कि लुटेरों के गैंग ने मिलकर मुझे लूटा है । वरना मेरी बीवी मुझे कायर ही समझेगी। 

तुम इस कंबल मे भी चार- पाँच छेद कर दो।' लुटेरे ने खुशी खुशी कंबल में भी कई गोलियाँ चलाकर छेद कर दिए। 

इसके बाद बढ़ई ने अपना कोट भी निकाल दिया और बोला, 'इसमें भी एक दो छेद कर दो ताकि सभी गॉंव वालों को यकीन हो जाए कि मैंने बहुत संघर्ष किया था।'

इस पर लुटेरा बोला, 'बस कर अब। इस बंदूक में गोलियां भी खत्म हो गई हैं।' 

यह सुनते ही बढ़ई आगे बढ़ा और लुटेरे को दबोच लिया और बोला, 'मैं भी तो यही चाहता था। 

तुम्हारी ताकत सिर्फ ये बंदूक थी। अब ये भी खाली है। अब तुम्हारा कोई जोर मुझ पर नहीं चल सकता है। 

चुपचाप मेरी पोटली मुझे वापस दे दे वरना .....

यह सुनते ही लुटेरे की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई और उसने तुरंत ही पोटली बढई को वापिस दे दी और अपनी जान बचाकर वहाँ से भागा। 

आज बढ़ई की ताकत तब काम आई जब उसने अपनी अक्ल का सही ढंग से इस्तेमाल किया।

इसलिए कहते है कि मुश्किल हालात मे अपनी अक्ल का ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए तभी आप मुसीबतों से आसानी से निकल सकते हैं।

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(2) कहानी

          फ़कीर और मौत'

बहुत पुराने समय की बात है। एक फ़कीर था, जो एक गाँव में रहता था।   

              एक दिन शाम के वक़्त वो अपने दरवाज़े पे बैठा था, तभी उसने देखा कि एक छाया वहाँ से गुज़र रही है। फ़कीर ने उसे रोककर पूछा- कौन हो तुम ? छाया ने उत्तर दिया - मैं मौत हूँ और गाँव जा रही हूँ क्योंकि गाँव में एक महामारी आने वाली है। छाया के इस उत्तर से फ़कीर उदास हो गया और पूछा, कितने लोगों को मरना होगा इस महामारी में। मौत ने कहा बस हज़ार लोग। इतना कहकर मौत गाँव में प्रवेश कर गयी। महीने भर के भीतर उस गाँव में महामारी फैली और लगभग तीस हज़ार लोग मारे गए। फ़कीर बहुत क्षुब्ध हुआ और क्रोधित भी कि पहले तो केवल इंसान धोखा देते थे, अब मौत भी धोखा देने लगी। फ़कीर मौत के वापस लौटने की राह देखने लगा ताकि वह उससे पूछ सके कि उसने उसे धोखा क्यूँ दिया। कुछ समय बाद मौत वापस जा रही थी तो फ़कीर ने उसे रोक लिया और कहा, अब तो तुम भी धोखा देने लगे हो। तुमने तो बस हज़ार के मरने की बात की थी लेकिन तुमने तीस हज़ार लोगों को मार दिया। इसपर मौत ने जो जवाब दिया वो गौरतलब है।

 मौत ने कहा - मैंने तो बस हज़ार ही मारे हैं, बाकी के लोग ( उनतीस हज़ार) तो भय से मर गए। उनसे मेरा कोई संबंध नहीं है।

               यह कहानी मनुष्य मन का शाश्वत रूप प्रस्तुत करती है। मनोवैज्ञानिक रूप मानव मन पर मौत से कहीं अधिक गहरा प्रभाव भय डालती है। भय कभी बाहर से नहीं आता बल्कि यह भीतर ही विकसित होता है। इसलिए कहते हैं - मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। हमारा मन जब हार जाता है तो हमारे  भीतर भय का साम्राज्य कायम हो जाता है। भयभीत व्यक्ति ना तो कभी बाहरी परिस्थितियों पर विजय प्राप्त कर सकता है ना ही अपनी मनःस्थिति पर।

               हम जैसे सोचते हैं, हमारा शरीर और पूरा शारीरिक-तंत्र उसी प्रकार अपनी प्रतिक्रिया देता है। इंसान के मन और मस्तिष्क की क्षमता उसकी शारीरिक क्षमता से कई गुना अधिक होती है। उस गाँव में उनतीस हज़ार लोग महामारी से नहीं बल्कि भय से मर गए क्योंकि उनका मनोबल गिर गया था। इसलिये मनोबल हमेशा ऊँचा रखें, परिस्थितियाँ चाहे जो भी हो।

               परिवर्तन संसार का नियम है। यह सुख और दुःख दोनों पे समान रूप से लागू होता है। संतुलित और निर्भीक मन (अच्छे अर्थों में) सफल और सार्थक जीवन जीने की सबसे बड़ी कुंजी है। अतः सदैव संतुलित रहने का प्रयास करें। एक कहावत है- मनुष्य को केवल एक ही व्यक्ति हरा सकता है और वो है मनुष्य स्वयं। एक सजग मनुष्य के लिए हताशा और निराशा कभी कोई विकल्प नहीं हो सकता। सकारात्मक रुख़ अपनाते हुए प्रयत्नशील और संघर्षशील रहना सदैव शक्ति और विजय का परिचायक रहा है। 

मित्रों ,

               सबकुछ लॉकडाउन हुआ है लेकिन हमारे ब्रह्मास्त्र ( Mobile Phone) का ईंधन बिल्कुल भरा हुआ है। इसका सदुपयोग कीजिये। अच्छा पढ़िये, अच्छा सुनिये, सभी किताबें ऑनलाइन उपलब्ध है। अपनी रचनात्मकता को पंख दीजिये और खुद को छोड़कर सबसे दूर हो जाइए। तभी आप सुरक्षित हैं और हम सब भी।

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(3) कहानी

        सुमिरन का स्वाद

      मेरी बच्ची जब बहुत छोटी थी, अब तक दाँत भी नही निकले थे। उस समय naturally बच्चों के हाथ में कुछ खिलौना आदि जो आया वो मूंह में डालते हैं। उसे भी हम जो चीज देते थे वह मूंह में डाल देती थी।

       हम भी मजा लेते थे कभी कभी कुछ देकर छीन लेते थे, कभी चुपचाप रहती कभी रो देती थी। पर एक बार मेरी बुआ ने उसके हाथ में एक आम दे दिया। अब दाँत तो थे नहीं, और हम भी अपनी बातों में मस्त थे। कुछ समय बाद  हमारा ध्यान उस आम पर गया जैसे हमने वो आम उसके हाथों से लिया वो जोरों से रोने लगी। अब हमने उसे कुछ खिलौने देना चाहा तो उसका इशारा आम की ओर ही था। जब हमने उस आम पर गौर किया तो आम पर थोड़ा सा छिद्र हो गया था, जिसमें से वो रस पी रही थी तब हम समझ गये कि वो उसी आम के लिये ही क्यों रो रही थी।

      उसे उस आम का रस इतना मीठा लगा कि कोई भी खिलौना उसे पसंद नही आ रहा था।

      अब थोड़ा गौर करने वाली बात ये है कि हम भी बिना दाँतो वाले बच्चे की तरह ही है "नाम" रुपी आम हमें भी मिल चुका है पर हम खिलौनों (रिश्तेदार समाज कामकाज) को ही पकड़े बैठे हैं। जब हम नाम का रस लेंगे तभी हम समझ पायेंगे कि बाकी के सारे खिलौने उसके सामने फीके हैं, बेरस है।

      शुरु शुरु में जैसे आम का छिलका कटा नहीं था तब तक रस का स्वाद नहीं आया जब कट गया तो रस का स्वाद आने लगा वैसे सुमिरन का भी वैसा ही है शुरु में फीका लगता है पर जब एक बार लज्जत मिल गई तो सारे जहां को भूल जायेंगे और उसी अम्रत रस के स्वाद लेने में लगे रहेंगे।

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(4) कहानी

         अहंकार से बचें...

जो लोग घमंड करते हैं
 उनका सारा ज्ञान व्यर्थ है, इस बुराई की वजह से सबकुछ खत्म हो सकता है।

रामकृष्ण परमहंस से जुड़ी एक प्रेरक कथा प्रचलित है। एक दिन रामकृष्ण परमहंस किसी संत के साथ बैठे हुए थे। ठंड के दिन थे। शाम हो गई थी। तब संत ने ठंड से बचने के लिए कुछ लकड़ियां एकट्ठा कीं और धूनी जला दी। दोनों संत धर्म और अध्यात्म पर चर्चा कर रहे थे। इनसे कुछ दूर एक गरीब व्यक्ति भी बैठा हुआ। उसे भी ठंड लगी तो उसने भी कुछ लकड़ियां एकट्ठा कर लीं। अब लकड़ी जलाने के लिए उसे आग की जरूरत थी। वह तुरंत ही दोनों संतों के पास पहुंचा और धूनी से जलती हुई लकड़ी का एक टुकड़ा उठा लिया।

एक व्यक्ति ने संत द्वारा जलाई गई धूनी को छू लिया तो संत गुस्सा हो गए। वे उसे मारने लगे। संत ने कहा कि तू पूजा-पाठ नहीं करता है, भगवान का ध्यान नहीं करता, तेरी हिम्मत कैसे हुई, तूने मेरे द्वारा जलाई गई धूनी को छू लिया। रामकृष्ण परमहंस ये सब देखकर मुस्कुराने लगे। जब संत ने परमहंसजी को प्रसन्न देखा तो उन्हें और गुस्सा आ गया। उन्होंने परमहंसजी से कहा, ‘आप इतना प्रसन्न क्यों हैं? ये व्यक्ति अपवित्र है, इसने गंदे हाथों से मेरे द्वारा जलाई गई अग्नि को छू लिया है तो क्या मुझे गुस्सा नहीं होना चाहिए?’​​​​​​​​​​​​​​

परमहंसजी ने कहा, ‘मुझे नहीं मालूम था कि कोई चीज छूने से अपवित्र हो जाती है। अभी आप ही कह रहे थे कि ये सभी इंसानों में परमात्मा का वास है। और थोड़ी ही देर बाद आप ये बात खुद ही भूल गए।’ उन्होंने आगे कहा, ‘दरअसल इसमें आपकी गलती नहीं है। आपका शत्रु आपके अंदर ही है, वह है अहंकार। घमंड की वजह से हमारा सारा ज्ञान व्यर्थ हो जाता है। इस बुराई पर काबू पाना बहुत मुश्किल है।’​​​​​​​

सीख- इस कथा की सीख यह है कि जो लोग घमंड करते हैं, उनके दूसरे सभी गुणों का महत्व खत्म हो जाता है। इस बुराई की वजह से सबकुछ बर्बाद हो सकता है। इसीलिए अहंकार से बचना चाहिए।

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(5) कहानी

           ईमानदारी

इस साल मेरा सात वर्षीय बेटा दूसरी कक्षा मैं प्रवेश पा गया!!
क्लास मैं हमेशा से अव्वल आता रहा है!
पिछले दिनों तनख्वाह मिली तो…
मैं उसे नयी स्कूल ड्रेस और जूते दिलवाने के लिए बाज़ार ले गया !
बेटे ने जूते लेने से ये कह कर मना कर दिया की
पुराने जूतों को बस थोड़ी-सी मरम्मत की जरुरत है
वो अभी इस साल काम दे सकते हैं!
अपने जूतों की बजाये उसने मुझे अपने दादा की कमजोर हो चुकी
नज़र के लिए नया चश्मा बनवाने को कहा !
मैंने सोचा बेटा अपने दादा से शायद बहुत प्यार करता है
इसलिए अपने जूतों की बजाय उनके चश्मे को ज्यादा जरूरी
समझ रहा है ! खैर मैंने कुछ कहना जरुरी नहीं समझा
और उसे लेकर ड्रेस की दुकान पर पहुंचा…..
दुकानदार ने बेटे के साइज़ की सफ़ेद शर्ट निकाली …
डाल कर देखने पर शर्ट एक दम फिट थी…..
फिर भी बेटे ने थोड़ी लम्बी शर्ट दिखाने को कहा !!!!
मैंने बेटे से कहा : बेटा ये शर्ट तुम्हें बिल्कुल सही है
तो फिर और लम्बी क्यों ?
बेटे ने कहा :पिता जी मुझे शर्ट निक्कर के अंदर ही डालनी होती है
इसलिए थोड़ी लम्बी भी होगी तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा…….
लेकिन यही शर्ट मुझे अगली क्लास में भी काम आ जाएगी ……
पिछली वाली शर्ट भी अभी नयी जैसी ही पड़ी है
लेकिन छोटी होने की वजह से मैं उसे पहन नहीं पा रहा !
मैं खामोश रहा !!
घर आते वक़्त मैंने बेटे से पूछा : तुम्हे ये सब बातें कौन सिखाता है बेटा ?
बेटे ने कहा: पिता जी मैं अक्सर देखता था कि कभी माँ अपनी साडी छोड़कर
तो कभी आप अपने जूतों को छोडकर हमेशा मेरी किताबों और कपड़ो पैर पैसे खर्च कर दिया करते हैं !
गली- मोहल्ले में सब लोग कहते हैं के आप बहुत ईमानदार आदमी हैं!
और हमारे साथ वाले राजू के पापा को सब लोग चोर, कुत्ता, बे-ईमान, रिश्वतखोर और जाने क्या क्या कहते हैं,
जबकि आप दोनों एक ही ऑफिस में काम करते हैं…..
जब सब लोग आपकी तारीफ करते हैं तो मुझे बड़ा अच्छा लगता है…..
मम्मी और दादा जी भी आपकी तारीफ करते हैं !
पिता जी मैं चाहता हूँ कि….
मुझे कभी जीवन में नए कपडे, नए जूते मिले या न मिले
लेकिन कोई आपको चोर, बे-ईमान, रिश्वतखोर या कुत्ता न कहे !!!!!
मैं आपकी ताक़त बनना चाहता हूँ पिता जी, आपकी कमजोरी नहीं !
बेटे की बात सुनकर मैं निरुतर था!
आज मुझे पहली बार मुझे मेरी ईमानदारी का इनाम मिला था !!
आज बहुत दिनों बाद आँखों में ख़ुशी, गर्व और सम्मान के आंसू थे…!!
 
    ये रचना मेरी नहीं हैं पर मुझे प्यारी लगी तो आप सब के साथ शेयर करने का मन हुआ*